इन दिनों दिन बढे तन्हा गुज़रे, वैसे रहा तो मैं हमेशा ही भीड़ मैं लेकिन फिर भी तन्हा-तन्हा. इसे आप 'आर्टिफिशियल तन्हाई' भी कह सकते हैं. परन्तु मेरे विचार से यही मौलिक तन्हाई हैं. तन्हाई मॆं तन्हा हुए तो क्या हुए, भीड़ मॆं तन्हा होना बढ़ी बात हैं. किसी कवि ने भी कहा हैं ----" मैं वहां अकेला ही अकेला नही था, अकेलों की भीढ़ थी वहां".
अब आप पूछेंगे कि ऐसी क्या बात हो गई, जो मुझे भीड़ मॆं भी अकेला कर गई. दरअसल, पुरे हफ्ते, मैं अख़बारों मॆं, पत्रिकाओं मॆं, खुद को, खुद से जुड़े सरोकारों को ढूंढ़ता रहा, और निराश होता रहा. अख़बारों मॆं सिर्फ राजतंत्र पड़ने छल-कपट-गबन की खबरें आती रही, लोग बम-विस्फोट पड़ने लिए सरकार पर आरोप लगाते रहे, और सरकार आरोपों पड़ने जड़ मॆं बयानों और बहानो के "हिंग" डालती रही। "धन्य हैं" भारत की जनता जो इतने धमाकों के बाद भी नही जागी हैं, न आतंकवाद के खिलाफ और न सरकार के खिलाफ , हम तो मग्न हो कर "ॐ शांति ॐ" गा बजा रहे हैं, क्या खूब संस्कार लिए हैं हमने अपने पूर्वजों से "ध्यान मग्न" रहने का.
अफसोसनाक तो यह हैं कि गुजरात की वेदना, महाराष्ट्र को संवेदित नही कर रही। बंगाल को दिल्ली से कोई मतलब नही रहा, हम विविध तो थे ही अब अनेक भी हो रहे हैं. आज हर जिन्ना अपना अलग पाकिस्तान मांग रहा हैं. असल बात तो यह हैं कि "आतंकवाद" से ज्यादा बड़ी चुनौती हमारे लिए "आत्मवाद" हैं ......यही "आत्मवाद" हमारे समाज मॆं दरारें पैदा कर रहा हैं और इन्ही दरारों मॆं फट रहा हैं अविश्वाश का बम।
बहरहाल इन्ही तन्हा दिनों मॆं से एक दिन मैं कॉलेज गया और संयोग से उस दिन मेरे गरुदेव मुझे मिल गए जो महाविद्यालय का पुस्कालय से किताबें निकल कर मुझे देते रहे हैं ( हमारे कॉलेज मॆं छात्रों को दुसरे संकाय की किताबें नही मिलती, और उस पर मॆं ठहरा "वाणिज्य" संकाय का, मुझे साहित्य की किताबें भला क्यों मिले) वो तो गुरु देव की कृपा हैं कि मुझे किताबें मिलती रही हैं, उस रोज़ भी मिली। एक साथ 3-3 किताबें
1)- याद हो कि न याद हो - काशीनाथ सिंह
2)- दिनकर कि डायरी - रामधारी सिंह दिनकर
3)- ठिठुरता हुआ गणतंत्र - हरिशंकर परसाई
हरिशंकर परसाई किसी परिचय के मोहताज़ नही हैं हाँ यह ज़रूर कहा जा सकता हैं कि इन्होने व्यंग को एक नई पहचान दी हैं ( इस बार के हंस में तो किसी जनाब ने {लेखक का नाम मुझे याद नही} तो परसाई जी के ऊपर उन्हें बिगाड़ने का सकारात्मक आरोप वह भी सधन्यवाद लगाया हैं)
जैसा कि मॆं पहले कह चूका हूँ कि परसाई जी के परिचय में कुछ कहने-लिखने कि ज़रूरत नही हैं तो अब मैं सीधे उनकी किताब पर आता हूँ, जिसे आपलोगों ने भी पढा होगा "ठिठुरता हुआ गणतंत्र"- 24 व्यंग कथाओं का संकलन हैं जो 1970 मॆं "नेशनल पब्लिशिंग हॉउस" से आया. इस किताब को बाँटने के लोभ का संवरण मॆं इस लिए नही कर पा रहा हूँ क्योंकि आज न तो ऐसी व्यंग रचनाएँ पढने मिलती हैं (जिसे हम अपने से बड़ों में कह-सुन सकें और दूसरी बात कि ये कृतियाँ आज भी उतनी ही प्रसांगिग हैं जितनी ये अपने जन्म के समय रही होंगी. दरअसल इस बार परसाई जी को पढ़ते हुए ऐसा लगा मनो परसाई जी भी प्रेमचंद के उसी परम्परा का निर्वाह कर रहे हों, जिसके तहत लेखन मनोरंजन का नही बल्कि संहार और सृजन का माध्यम हैं.
तो लीजिये पढिये परसाई जी के व्यंग कथाओं के कुछ अंश ...........
1)*** ठिठुरता हुआ गणतंत्र ***
* "जैसे दिल्ली कि अपनी अर्थनीति नही हैं, वैसे ही अपना मौसम भी नही हैं. अर्थनीति जैसे डालर, पाउंड, रुपया अंतराष्ट्रीय मुद्राकोष या भारत सहायता क्लब से तय होती हैं, वैसे ही दिल्ली का मौसम कश्मीर, सिक्किम, राजस्थान आदि तय करते हैं."
* " स्वतंत्रता दिवस भी तो भरी बरसात मॆं होता हैं. अँगरेज़ बहुत चालाक हैं. भरी बरसात में स्वतंत्र कर के चले गए. उस कपटी प्रेमी की तरह भागे, जो प्रेमिका का छाता भी ले जाय. वेह बेचारी भीगती बस-स्टैंड जाती हैं, तो उस प्रेमी की नही, छाता चोर की याद सताती हैं."
* "गणतंत्र को उन्ही तों की तली मिलती हैं, जिनके मालिक के पास हाथ छिपाने के लिए गर्म कपडा नही हैं."
2)*** कर कमल हो गए***
* "विदेशी राज-अतिथि से अपना यह कमल वाला क्या कह रहा हैं. वह जो कहता हैं अख़बारों में नही छपता. वह कहता हैं- साहब, हमारी शर्म अब 20-22 साल की जवान लड़की हो गई हैं. मगर वह नगी रहती हैं. जब आप आते हैं तो आपकी मुस्कान की रेशमी साडी अपनी नंगी शर्म को पहना कर हम आपके सामने पेश करते हैं."* "इसके बाद वह अपने कर कमलों से दो दर्शनी हुंडियों निकलेगा- एक चीन की और दूसरी पाकिस्तान की और फ़ौरन भुगतान करा लेगा. फिर वह किसी जादू से से चीन और पाकिस्तान को बच्चों को डराने के लिए 'बाबा' बना लेगा. बच्चे भूख के कारण रोयेंगे, तो वह कहेगा-'चुप सो जा 'बाबा' आ रहे हैं. चीन और पाकिस्तान पकड़कर ले जाएँगे. बच्चे डर से सो जायेंगे.
(आगे का हिस्सा कल.....................................)
4 comments:
PARSAIJI ki prasangikta sadiyon tak kam nahi hogi, bandhu...
सही जा रहे हो भी. हमारे देश में "एकला चौलो रे" की पुरानी परम्परा है. चाहिए शास्त्रीय संगीत या नृत्य हों, शिक्षण (गुरुकुल - या द्रोणाचार्य सरीखे प्राइवेट गुरु) परम्परा हो, शास्त्रार्थ हों या शास्त्रीय खेल शतरंज, कैरम, कुश्ती या गिल्ली-डंडा. हम अकेले थे और अकेले ही रहेंगे. हर घर में एक राष्ट्र - कुछ में महा-राष्ट्र और बाकी में धृतराष्ट्र - उसके लिए चाहे जितने महाभारत हो जाएँ - हमें क्या?
बड़ी चुनौती हमारे लिए "आत्मवाद" हैं
ये पंक्ति कटु यथार्त है भाई.बहुत खूब.और परसाई जी का क्या कहना.
मैं कल ही लिखता लेकिन अचानक कोई दिहाडी का काम आगया.
फ्री लांसर हूँ न.लिखते रहो.अच्छा लगता है.समरसता समाज में बनी रहे इस प्रयास के लिए इक नया मंच बनाया है. http://saajha-sarokaar.blogspot.com फ़ुर्सत मिले तो जाएँ उस तरफ.
parsayi ji ka naam bhaut suna hai magar ab tak ye kitab padhne ka sobhgya nahi hua
aap bhaut ksimat wale hain ki itni kitaben padhne ko milti hai
isi tarah vichar share karte rahiye
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