Wednesday, 27 August 2008

अथ कष्ठ्स्य कथा

एक दिन अचानक कष्ट जी महाराज को पता चला की वो आजाद होने वाले हैं। कुछ ही दिनों मॆं उनके ऊपर लगे सारे प्रतिबंध हट जायेंगे, कोई उन्हें तंग नही करेगा, कोई उनके ऊपर "उनके" होने का झूठा इल्जाम नही लगायेगा, अगर किसी ने ऐसा किया तो वह न्यायालय जा सकेंगे मान-हानी का दावा ठोंक सकेंगे.........................सो "कष्ट" बड़े खुश हुए .....गुलाल उडाये गए, पकवान पकाए गए, शरबत की नदियाँ बहने लगी, वो इतने खुश थे मानो उन्हें दुःख रूपी बेटी के लिए मृत्यु रूपी वर मिला हो, वह भी बिना दहेज़ के।

आज़ादी......आज़ादी......आज़ादी......, अधिकार....अधिकार....अधिकार....---स्वतंत्रता का अधिकार, जिंदा रहने का अधिकार, लुटने-लुटाने का अधिकार...........बस यूँ समझ लीजिये कि "कष्ट जी" कि चांदी कटने वाली थी, इसलिए वो जशन मना रहे थे ..."वाह कष्ट भाई क्या खूब दावत दी हैं तुमने"--'विस्फोट' बोला . 'दुर्घटना', 'कुपोषण','भूख', 'लाचारी', 'बेईमानी' सब ने 'विस्फोट' की हाँ मॆं हाँ मिलते हुए कहा "इतने दिनों से अँगरेज़ खा रहे थे, अब हम खायेंगे"।

लेकिन एक कोने मॆं पडा बूढा 'फाइलेरिया' अपने मॆं ही बुदबुदा रहा था ........."कैसे असंस्कारी लोग हैं, कैसे निर्लज हैं, अपनी आज़ादी मॆं अपने दुश्मन 'ख़ुशी' को निमंत्रण ...छी,देखो कैसे निर्लज हो कर हस गा रहे हैं सब ...ऐसे ही चलता रहा तो एक दिन "कष्ट" का विनाश निश्चित हैं, फिर ये आज़ादी नही 'निर्वान' के उत्सव के रूप मॆं याद किया जायेगा.....और फिर इन सब को स्वर्ग मॆं इन्द्र की गुलामी खटनी पड़ेगी ......ओह !!आ दर्द आ! हे दुखों के राजा इन्हें कुबुध्दी दो की की ये 'ख़ुशी' का साथ छोड़ 'दुख' को बढायें ......" तभी आसमान से एक काले रंग की किरण धरती पर आई ...वह इतनी काली थी कि सभी की आंखें कजरा गईं....हाथ को हथियार नज़र न आये इतनी काली......

फिर थोडी देर मॆं "कष्ट जी महाराज ज़मीं पर लेटे नज़र आये.... मालूम हुआ की दिल का दौरा पड़ा हैं .... " 'कष्ट' को 'कष्ट' आह !कितना सुन्दर संयोग, शुक्रिया मेरे दानव शुक्रिया, तुमने आपने वंश का विनाश होने से बचा लिया" बुढे 'फाइलेरिया' ने अपने दानव का शुक्रिया अदा किया........इधर जशन मॆं शामिल 'ख़ुशी' से 'कष्ट' का कष्ट देखा न जा रहा उसने कहा "जल्दी से महात्मा को बुलाओ" ...तब तक बांकी लोगों की आँखों से रौशनी का पर्दा का पर्दा हट चुका था वे सब एक स्वर मॆं बोले ------"नही, महात्मा तो "कष्ट" के कष्ट को मार डालेगा, इससे इसके कष्ट मॆं इजाफा नही होगा, महात्मा नही इसे "नेता" के पास ले जाओ वही इसे और दुख के दर्शन कराएगा, जिससे इसकी उम्र और ज्यादा बढेगी" । "लेकिन वो भला हमारी मदद क्यों "----यह चिंता की चिंता थी .....इसपर लोभ मुस्कुराया और बोला "इसका उपाय मैंने कर रखा "-----"दोनों ही सत्ता के लोभ से ग्रसित हैं", एक की हटधर्मिता हमारे "कष्ट" के आनंद को बढाएगी तो दूसरा बटवारे के फार्मूले से अपने स्वार्थ का गणित हल करने पर लगा हुआ हैं ।

लोभ ने जैसा कहा था वैसा ही हुआ "कष्ट" इको आज़ादी के तोहफे के रूप मॆं मिला एक अलग हिंदुस्तान और अलग पाकिस्तान.

कष्ट खुश था की हिन्दू अपने हिस्से के कष्ट के लिए लड़ रहे थे और मुस्लमान अपने हिस्से के कष्ट के लिए, इधर का उधर, उधर का इधर, जो फसा वह गया परलोक. चारो तरफ मांस ही मांस वह भी मानवों का, खून ही खून वह भी निर्दोषों का .......कितना आनंदमय द्रिश्य था कष्ट के लिए ये उसी समय का कालकूट हैं जिसके कारण कष्ट आज भी जीवित हैं........

और हमारे नेता आज भी उसी की दलाली कर रहे हैं

Tuesday, 12 August 2008

तन्हाई....आत्मवादी.....परसाई....

इन दिनों दिन बढे तन्हा गुज़रे, वैसे रहा तो मैं हमेशा ही भीड़ मैं लेकिन फिर भी तन्हा-तन्हा. इसे आप 'आर्टिफिशियल तन्हाई' भी कह सकते हैं. परन्तु मेरे विचार से यही मौलिक तन्हाई हैं. तन्हाई मॆं तन्हा हुए तो क्या हुए, भीड़ मॆं तन्हा होना बढ़ी बात हैं. किसी कवि ने भी कहा हैं ----" मैं वहां अकेला ही अकेला नही था, अकेलों की भीढ़ थी वहां".

अब आप पूछेंगे कि ऐसी क्या बात हो गई, जो मुझे भीड़ मॆं भी अकेला कर गई. दरअसल, पुरे हफ्ते, मैं अख़बारों मॆं, पत्रिकाओं मॆं, खुद को, खुद से जुड़े सरोकारों को ढूंढ़ता रहा, और निराश होता रहा. अख़बारों मॆं सिर्फ राजतंत्र पड़ने छल-कपट-गबन की खबरें आती रही, लोग बम-विस्फोट पड़ने लिए सरकार पर आरोप लगाते रहे, और सरकार आरोपों पड़ने जड़ मॆं बयानों और बहानो के "हिंग" डालती रही। "धन्य हैं" भारत की जनता जो इतने धमाकों के बाद भी नही जागी हैं, न आतंकवाद के खिलाफ और न सरकार के खिलाफ , हम तो मग्न हो कर "ॐ शांति ॐ" गा बजा रहे हैं, क्या खूब संस्कार लिए हैं हमने अपने पूर्वजों से "ध्यान मग्न" रहने का.

अफसोसनाक तो यह हैं कि गुजरात की वेदना, महाराष्ट्र को संवेदित नही कर रही। बंगाल को दिल्ली से कोई मतलब नही रहा, हम विविध तो थे ही अब अनेक भी हो रहे हैं. आज हर जिन्ना अपना अलग पाकिस्तान मांग रहा हैं. असल बात तो यह हैं कि "आतंकवाद" से ज्यादा बड़ी चुनौती हमारे लिए "आत्मवाद" हैं ......यही "आत्मवाद" हमारे समाज मॆं दरारें पैदा कर रहा हैं और इन्ही दरारों मॆं फट रहा हैं अविश्वाश का बम।

बहरहाल इन्ही तन्हा दिनों मॆं से एक दिन मैं कॉलेज गया और संयोग से उस दिन मेरे गरुदेव मुझे मिल गए जो महाविद्यालय का पुस्कालय से किताबें निकल कर मुझे देते रहे हैं ( हमारे कॉलेज मॆं छात्रों को दुसरे संकाय की किताबें नही मिलती, और उस पर मॆं ठहरा "वाणिज्य" संकाय का, मुझे साहित्य की किताबें भला क्यों मिले) वो तो गुरु देव की कृपा हैं कि मुझे किताबें मिलती रही हैं, उस रोज़ भी मिली। एक साथ 3-3 किताबें
1)- याद हो कि न याद हो - काशीनाथ सिंह
2)- दिनकर कि डायरी - रामधारी सिंह दिनकर
3)- ठिठुरता हुआ गणतंत्र - हरिशंकर परसाई

हरिशंकर परसाई किसी परिचय के मोहताज़ नही हैं हाँ यह ज़रूर कहा जा सकता हैं कि इन्होने व्यंग को एक नई पहचान दी हैं ( इस बार के हंस में तो किसी जनाब ने {लेखक का नाम मुझे याद नही} तो परसाई जी के ऊपर उन्हें बिगाड़ने का सकारात्मक आरोप वह भी सधन्यवाद लगाया हैं)
जैसा कि मॆं पहले कह चूका हूँ कि परसाई जी के परिचय में कुछ कहने-लिखने कि ज़रूरत नही हैं तो अब मैं सीधे उनकी किताब पर आता हूँ, जिसे आपलोगों ने भी पढा होगा "ठिठुरता हुआ गणतंत्र"- 24 व्यंग कथाओं का संकलन हैं जो 1970 मॆं "नेशनल पब्लिशिंग हॉउस" से आया. इस किताब को बाँटने के लोभ का संवरण मॆं इस लिए नही कर पा रहा हूँ क्योंकि आज न तो ऐसी व्यंग रचनाएँ पढने मिलती हैं (जिसे हम अपने से बड़ों में कह-सुन सकें और दूसरी बात कि ये कृतियाँ आज भी उतनी ही प्रसांगिग हैं जितनी ये अपने जन्म के समय रही होंगी. दरअसल इस बार परसाई जी को पढ़ते हुए ऐसा लगा मनो परसाई जी भी प्रेमचंद के उसी परम्परा का निर्वाह कर रहे हों, जिसके तहत लेखन मनोरंजन का नही बल्कि संहार और सृजन का माध्यम हैं.

तो लीजिये पढिये परसाई जी के व्यंग कथाओं के कुछ अंश ...........
1)*** ठिठुरता हुआ गणतंत्र ***
* "जैसे दिल्ली कि अपनी अर्थनीति नही हैं, वैसे ही अपना मौसम भी नही हैं. अर्थनीति जैसे डालर, पाउंड, रुपया अंतराष्ट्रीय मुद्राकोष या भारत सहायता क्लब से तय होती हैं, वैसे ही दिल्ली का मौसम कश्मीर, सिक्किम, राजस्थान आदि तय करते हैं."
* " स्वतंत्रता दिवस भी तो भरी बरसात मॆं होता हैं. अँगरेज़ बहुत चालाक हैं. भरी बरसात में स्वतंत्र कर के चले गए. उस कपटी प्रेमी की तरह भागे, जो प्रेमिका का छाता भी ले जाय. वेह बेचारी भीगती बस-स्टैंड जाती हैं, तो उस प्रेमी की नही, छाता चोर की याद सताती हैं."
* "गणतंत्र को उन्ही तों की तली मिलती हैं, जिनके मालिक के पास हाथ छिपाने के लिए गर्म कपडा नही हैं."
2)*** कर कमल हो गए***
* "विदेशी राज-अतिथि से अपना यह कमल वाला क्या कह रहा हैं. वह जो कहता हैं अख़बारों में नही छपता. वह कहता हैं- साहब, हमारी शर्म अब 20-22 साल की जवान लड़की हो गई हैं. मगर वह नगी रहती हैं. जब आप आते हैं तो आपकी मुस्कान की रेशमी साडी अपनी नंगी शर्म को पहना कर हम आपके सामने पेश करते हैं."* "इसके बाद वह अपने कर कमलों से दो दर्शनी हुंडियों निकलेगा- एक चीन की और दूसरी पाकिस्तान की और फ़ौरन भुगतान करा लेगा. फिर वह किसी जादू से से चीन और पाकिस्तान को बच्चों को डराने के लिए 'बाबा' बना लेगा. बच्चे भूख के कारण रोयेंगे, तो वह कहेगा-'चुप सो जा 'बाबा' आ रहे हैं. चीन और पाकिस्तान पकड़कर ले जाएँगे. बच्चे डर से सो जायेंगे.

(आगे का हिस्सा कल.....................................)


Monday, 4 August 2008

छाप--- मेरी बुलबुल कि पैसा मिलेगा--2

गुरु जी जैसे दलालों का (क्या करूँ लिखना तो 'दादाओं' चाहता हूँ, वे भी पुराने खिलाडी हैं राजनीति के, लेकिन ये कमबख्त कलम बागी हैं ) का एक 'दलदल' मतलब दल उतरप्रदेश में भी हैं. बड़े बेचैन दलाल, वे शेयर मार्केट से परेशान नही हैं, न ही गरीबी से तंग, ये महंगाई पर भी दलाली नही करते हैं, वे बाज़ारों में नही मस्जिदों में जाकर दलाली करते हैं.
बहरहाल फ़िलहाल ये 'दलाल' पिटे हुए हैं, बहन जी से पिटे हुए. दर्द के मरे करहा रहे हैं, दर्द कुर्सी से गिरने का, गिराए जाने का. अच्छे से अच्छे डाक्टर कि महंगी से महंगी दवाई नाकाम. दर्द बहन जी के शाशन के समानांतर बढता ही जा रहा हैं. पर कहते हैं न जहाँ से दर्द मिला हो दवा भी वहीँ मिलती हैं. सो 'कुर्सी का दर्द कुर्सी से ही जावेगा'. बहन जी का दर्द मैडम जी भगवें गी (महिला सशक्तिकरण का जमाना हैं). इसलिए जैसे ही रियल्टी शो कि खबर मिली चीफ (वैसे चिप भी चलेगा) दलाल पहुँच गए 'जनपथ'. मैडम जी कि दरबार मॆं, उनकी कुर्सी को कन्धा देने मेरा मतलब सहारा देने, कीर्तन गाने (ह्रदय परिवर्तन जो हुआ हैं, सत्य के दर्शन जो हुए हैं). "मैडम जी तुम चन्दन हम पानी"..........इधर मैडम जी के खेमे मॆं तो पहले ही 'लाल चुनर' वाले की 'कचिये-हथोडी' ने कहर बरपाया हुआ था , नीली वाली पगड़ी उडी-उडी जा रही थी, मैडम जी के वफादार विकल हो सुन रहे थे---"चार दिनों का प्यार ओ रब्बा फिर लम्बी जुदाई हैं" (सचमुच साहित्यकार अपने आने वाले समय को पहचान लेता हैं) लेकिन जैसे ही चीफ दलाल पहुंचे, रिकार्ड बदल गया ...."यु पि से आया मेरा दोस्त, दोस्त को सलाम करो" मनो सदियों से अँधेरे में पड़े गावं में बिजली आ गई हो, गले मिले, जेबें भरी, स्वार्थ सिद्धि हुई,तय हुआ--"छाप--- मेरी बुलबुल कि पैसा मिलेगा".
इधर खबर यह हैं कि 'लाल चुनर' तार-तार हो गई, कमल अपनी पंखुडियों को बहा ले जाने का दोष पैसे कि बाढ़ को दे रहा हैं.
लेकिन क्या सलमान अब इस बात के लिए कितनी बड़ी खिड़की छोडेंगें कि "कितने % भारतीय लोकतंत्र में जी रहे हैं??"

Sunday, 3 August 2008

छाप-- मेरी बुलबुल कि पैसा मिलेगा--1

आप सोच रहे होंगे कि आखिर मुझे यह किस घटिया शौक ने पकड़ लिया हैं,जी नही मॆं पैरोडी बनाने कि घटिया शौक का शिकार नही हुआ हूँ, बल्कि जरा गौर से सुनिए ये पैरोडी तो हमारे देश कि हवाओं में खुद बन सवर रही हैं
जमाना हैं "रियल्टी शोज़ " का, हमारे सल्लू जी छपवा रहे हैं, पञ्च सवालों से एक आदमी का दम देख रहे हैं. "कितने प्रतिशत भारतीय ......."इसमें सवालों पर बोलना होता हैं, उसके जबाब देने होते हैं. कभी कभी बड़ी मुश्किल होती हैं, हरने का खतरा होता हैं. ना न ना,ना इसमें हमारे सांसद नही जा सकते, उन्हें जबाब देना नही भाता किसी को भी नही जनता को तो बिकुल भी नही. लेकिन "रियल्टी शोज़" का क्रेज़ हैं, उसका अपना थ्रिल हैं, रोमंच हैं, रहस्य हैं, उसमें गज़ब की संवेदना और सबसे आखिर मॆं रुपये हैं ,ओहदे हैं ,इतिहास में अमर होने का अपना मतलब होता हैं.
बहरहाल एक रियल्टी शो --- "न्यूक्लियर डील"
इधर हमारी राजनीति (माफ़ी चाहूँगा --राजतन्त्र, आजकल हमारे यहाँ नीति का सर्वथा अभाव हैं वो अंग्रेजी में कहते हैं न "out of stock",बशर्ते कुतर्कों के माद्यम से अनीति/ कुनीति को नीति का सगे वाला न साबित किया जाय) मॆं कुछ महात्माओं की ग्रह-दशा बड़ी खराब चल रही थी,जो कभी राजतन्त्र के राखी सावंत (आईटम मेंबर) हुआ करते थे उनकी वर्तमान हालत भी "राखी सावंत" जैसी ही थी. बदहाल, बदहवास,और बेदखल. खदान से क्या निकले गए की हीरों ने चमकना ही छोड़ दिया, बुजुर्ग थे "नाच बलिये" में जा नही सकते और न ही उनके पास इतने गुर्गे थे कि "रंगदारी" मांग सकें ..........शोकाकुल थे कि अचानक उंट पहाड़ के निचे आ आ गया, जिन नीली पगड़ी वाले ने उन्हें लात मार बाहर किया था वो शकाक्छात लात समेट, उनके चरणों में बैठे थे ....."गुरु जी हमारी तरफ से छाप दीजिये आपको आपका सब कुछ दुबारा मिलेगा.....गुरु जी बोले "वो तो हमारा था ही तुम्हारा क्या हैं जो तुम हमें दो गे ,.........इक राज्य का सी ऍम या नगद जो चाहिए वो मिलेगा....... तो फिर "न्यूक्लियर डील" पक्का गुरु जी बोले
आगे कि दास्ताँ कल

Friday, 1 August 2008

बेटा

एक बूढी औरत
अस्पताल मॆं
साथ ही इलाही दरबार मॆं
अपनी बारी के लिए कर रही हैं इंतजार.
उसके एक बगल हैं ,बेटा बंधी हैं उसकी कलाई मॆं
टाटा की घडी
दूसरी तरफ लेकिन बेटे से ज्यादा करीब
उसने रखी हैं छड़ी
"अम्मा तुम्हारा नंबर आ गया"-:वार्ड बॉय बोला
बुढ़िया उठती हैं
बेटे के हाथ को नकारती हैं
छड़ी के सहारे आगे बढ़ जाती हैं
सुना था
बेटे होते हैं बुढापे की छड़ी
छड़ी को बुढापे का बेटा होते मैंने आज ही देखा हैं ........

Saturday, 26 July 2008

"कब तक ??????"

{"दिल के फफोले जल उठेसिने की आग से
घर को लग गई आग घर के चिराग से "}-:अज्ञात
याद है मुझे वह
जब ढलता-ढलता सा सूरज था ,
था उगता , उगता सा चाँद
सूरज ही क्यों पुरा दिन ही ढलता-ढलता सा रहा
आसमान उस संवेदनशील अधेढ़ की
तरह पुरे दिन सिसकता रहा
कभी जम कर नही रोया
धुप आसमान को उस अधेड की

पत्नी की तरह सम्हालती रही, सहलाती रही
लेकिन उसने रोना कहाँ छोडा
पर पता नही आज आसमान के सर
विप्पतियों का कोण सा आसमान टूट पडा ( आज वह इतना क्यों रो रहा हैं )
इतना तो वह अधेड़ उस दिन भी मनाही रोया था
जब उसका बेटा ,नोकरी पा कर
मुंबई की लोकल ट्रेन से लोट रहा लोट रहा था

और बम धमाकों मॆं
मारा गया .............
लेकिन हाँ वह उस दिन रोया था -
जब वह अपने बेटे का शव लेने
अस्पताल गया था
और उसे 1200 रूपए देने पड़े थे
सबको पुलिस और अस्पताल के कर्मचारियों को
अपने बेटे की मोत की मिटाई खाने के लिए
रोया था वह उस दिन
और आज ठीक उसी तरह
आसमान रो रहा हैं
शायद उस अधेढ़ के दर्द को याद कर रहा हैं
और सोच रहा हैं आखिर कब तक -
बाप बांटेगा मिटाई अपने बेटे की मोत पर .........
आखिर कब तक ???????